बॉलीवुड में कई ऐसे गीत हुए हैं जो ग़म से भरे हुए हैं ऐसी कई परिस्थितियाँ बॉलीवुड की फ़िल्मों में आती रही हैं और आती रहेंगी, अब तो दुःख फ़िल्मी गीतों में बेहद ज़रूरी सा होने लगा है। लेकिन अगर दुःख भरे और उदासी भरे गीतों के बारे में सोचा जाए तो जाने क्यों याद आते हैं देव आनंद। अब आप ही सोचिए न देव आनंद किस तरह परदे पर आकर दुःख और उदासी को पल भर में काफ़ूर कर देते हैं। अब इस बात को कहने के लिए आप ये सोच सकते हैं कि देव आनंद परदे पर हमें कुछ ज़्यादा भाते हैं।
वैसे आप भी ये बात मान जाएँगे कि देव आनंद के कुछ गीत तो बिलकुल ऐसे हैं जो उदास बोलों से भरे हैं लेकिन फिर भी उन्हें देखा जाए तो मन उदास नहीं होता बल्कि ऐसा लगता है कि काश हम भी इस तरह अपनी उदासी को जी लेते। यहाँ बात 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ता चला गया' की नहीं हो रही है बल्कि हो रही है, 'तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ' की। एक ओर साहिर लुधियानवी के बोल जो सीधे दिल-ओ- दिमाग़ को छूते हैं और उस पर हेमंत कुमार की आवाज़ मन को मोह लेती है और उस पर देव आनंद।
यहाँ जीने से बेहतर मरने को बताया जा रहा है लेकिन ये बात इस अन्दाज़ में कही जा रही है कि ऐसी हालत में भी कोई ग़म नहीं है। एक पाइप को घर बनाकर रहने की कोशिश है और उस पर भी ये बेफ़िक्री। उस पाइप के घर से भी नज़र है सामने के घर पर जहाँ एक ख़ूबसूरत कन्या है जिस पर दिल आया है लेकिन वो भी बेगानी नज़र ही रखती है जो लाज़मी है। ऐसे में कहा जाता है "कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता.." और उस पर ये कहना तो ग़ज़ब हो जाता है कि "अरे ओ आसमां वाले बता इसमें बुरा क्या है, ख़ुशी के चार झोंके भी इधर से जो गुज़र जाएँ"
कितनी सादगी से पूछा सवाल है जो शायद हर उस दिल में उठता है जो कभी किसी भी असफलता से गुज़रा है लेकिन क्या सभी के पूछने का ढंग ऐसा होता है? बस यही बात है जो इस ग़ज़ल को ख़ास बनाती है। जी हाँ, ये गीत नहीं बल्कि एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल है और इसके अशआर ख़ूबसूरत हैं। वैसे देव आनंद का ऐसा ही एक गीत आप सुन सकते हैं जिसे लिखा है मजरुह सुल्तानपूरी ने फ़िल्म "बात एक रात की" और गीत "अकेला हूँ मैं, इस दुनिया में.." सुनिए ये दोनों गीत और सीखिए ज़िंदगी जीने का अन्दाज़ देव आनंद से।
चित्र- इंटरनेट से साभार
वैसे आप भी ये बात मान जाएँगे कि देव आनंद के कुछ गीत तो बिलकुल ऐसे हैं जो उदास बोलों से भरे हैं लेकिन फिर भी उन्हें देखा जाए तो मन उदास नहीं होता बल्कि ऐसा लगता है कि काश हम भी इस तरह अपनी उदासी को जी लेते। यहाँ बात 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ता चला गया' की नहीं हो रही है बल्कि हो रही है, 'तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ' की। एक ओर साहिर लुधियानवी के बोल जो सीधे दिल-ओ- दिमाग़ को छूते हैं और उस पर हेमंत कुमार की आवाज़ मन को मोह लेती है और उस पर देव आनंद।
कितनी सादगी से पूछा सवाल है जो शायद हर उस दिल में उठता है जो कभी किसी भी असफलता से गुज़रा है लेकिन क्या सभी के पूछने का ढंग ऐसा होता है? बस यही बात है जो इस ग़ज़ल को ख़ास बनाती है। जी हाँ, ये गीत नहीं बल्कि एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल है और इसके अशआर ख़ूबसूरत हैं। वैसे देव आनंद का ऐसा ही एक गीत आप सुन सकते हैं जिसे लिखा है मजरुह सुल्तानपूरी ने फ़िल्म "बात एक रात की" और गीत "अकेला हूँ मैं, इस दुनिया में.." सुनिए ये दोनों गीत और सीखिए ज़िंदगी जीने का अन्दाज़ देव आनंद से।
चित्र- इंटरनेट से साभार